कैलेंडर की तारीखें रेंगती हुई फिर उसी बिन्दु पर पहुँच गई। जहाँ से दर्द का न ख़त्म होने वाला सिलसिला शुरू हुआ। हाँ! चौथाई सदी गुजर जाने के बाद भी मन का बोझ कम नहीं हुआ।
“दर्द से निजात नहीं मिली है।”
“दर्द!”
“कौन सा दर्द”
“कैसा दर्द”
“कुछ कर पाने या न कर पाने का दर्द”
“कैसा था वह क्षण जब सब कुछ फिसल गया था मेरे हाथों से, यदि मैं चाहती तो बचा सकती थी कैलेंडर की तारीख़ को, इस बिन्दु पर रुकने से। बस् एक बार फिर लहू-लुहान होना था और बच जाता,
हाँ! शायद बच जाता एक टुकड़ा आसमान सांस लेने के लिए और लहुलुहान तो वैसे भी होती रही....”
उस दिन हमेशा की तरह सुबह-सवेरे घर-बाहर के पुरुषों के जागने से पहले शौच के लिए खेतों में गई थी। बस् अन्तर इतना था कि हमेशा घर-गाँव की अन्य महिलाओं के साथ झुण्ड में शौच के लिए जाया करती थी। परन्तु उस दिन पेट में पीड़ा कुछ अधिक हुई, सो अकेली ही निकल पड़ी। उपयुक्त स्थान तलाश कर ही रही थी कि जकड़ लिया था कल्लू चौधरी के आवारा लड़के बल्ली ने अपनी बाँहों में और पटकना चाहता था बीच खेत में। तब आत्मरक्षा के लिए जाने कहाँ से शक्ति आ गयी थी। एक झटके के साथ स्वयं को आज़ाद कर सरपट भाग खड़ी हुई। लहूलुहान नंगें पैर लिए गिरते-पड़ते घर पहुँची। घरवालों ने उलटे मुझे ही फटकारा ।
“क्यों गई थी तन्हा खेत में, चौधरी का दबदवा है गाँव में उसके ख़िलाफ़ कौन मुँह खोल सकता है।” माँ ने मुँह बन्द रखने की सलाह दी। इस सलाह में उनकी दुर्बल स्थिति का अहसास ज़्यादा था सलाह तो कम ही थी।
पिता बिस्तर पर चिपक चुके थे बस् स्मृति मात्र ही नज़र आते थे, लगता था न जाने कब उनकी अर्थी की तैयारी करनी पड़ जाये। आधुनिक युग के दो भाई पत्नियाँ के आते ही, माँ-बाप को छोड़कर अलग-अलग शहरों बसने चले गए थे। मेरे साथ थी मेरी विवषता, मेरा जीवन और दो मरे समान जीव। तब कौन आवाज़ उठाता, चौधरी के खिलाफ़?
मेरा पहला सामना था इस दूनियाँ की कमीनगी से, तब बच गयी थी, मैं, मगर वह भेड़िया बेखौफ़ होकर घूम रहा था मेरे आसपास। माँ को एक ही रास्ता सूझा था मुझे सुरक्षित रखने का।
“गाँव से दूर भेजकर”
“निश्चित हो गयी थी माँ”
“कितना भोलापन था माँ में, बीस साल की मासल देह वाली बेसहारा लड़की को शहर भेजकर, उसे लगा था कि उसने अपनी बेटी को सुरक्षित कर लिया है”
“भेड़िये कहाँ नहीं होते”,
“खेत से तो भागकर बचा लिया था अपने आपको” मगर बंद कमरे की चाहर दिवारी से कहाँ भाग कर जाती। वह पिता के पुराने मित्र का घर था। बहुत सज्जन व्यक्ति थे पिता जी के मित्र। पिता जी ने कभी उनके साथ कुछ ऐसा उपकार किया था कि जिसके लिए वह अपने आपको सदैव ऋणी मानते थे। तभी तो पिता जी ने स्वीकृति दी थी उनके घर रहने की। परन्तु परिवार के गुण संतान में पूरे के पूरे कहाँ आते है। उनका लड़का अपने बाप के स्वभाव से बिलकुल अलग था। मेरा दुख यह था कि पिता तुल्य चाचा को अपने शरीर से बहता खून दिखाकर शर्मसार नहीं करना चाहती थी। सो सहती रही, गर्म सलाखों के दाग नंगे शरीर पर।
एक सपना दिया था मुकेश ने, सुन्दर भविष्य का सपना, घर की बहू बनाने का सपना। लेकिन इस घर में आने के लिए चाँदी-सोने से लदी लड़कियों की लम्बी कतार थी। चार पहिये युक्त सुन्दर विज्ञापन वाली लड़कियाँ। मेरा आग्रह, अनुमय, विनय सब व्यर्थ था।
तब तक मैंने घिसटते-घिसटते बी. ए. कर लिया था। पिता जी स्वर्ग सिधार गए थे। लोक लाज के लिए बड़े भैया गाँव से माँ को अपने साथ ले गए। मुझे मान लिया गया था कि नारी समानता के युग में लड़की नहीं लड़के के समान हूँ, मैं, अपना भविष्य स्वयं बनाने लिए सक्षम हूँ। अतः भाईयों का कोई दायित्व नहीं है। स्वार्थी बुद्धि कैसे नये-नये बहाने तलाश कर लेती है, अपने आप को बचाने के लिये।
मुझे लगा, बुढें अंकल मजबूर आँखों से ज़िल्लत के साथ मुझे घर से निकलते हुए देखें इससे पहले मैं उन्हें अपने पिता के ऋण से मुक्त करने हुए स्वयं अपना बसेरा कहीं ओर देख लूं।
वक़्त की मार और समय की ज़रूरत ने मुझे काम दिला दिया था एक मोटे थूलथूल से इन्सान की पी.ए. बन गयी, वेतन कोई ज़्यादा नहीं था, काम भी ज़्यादा नहीं। बस् कुछ कपड़ों में बदलाव आना शुरू हुआ, कुछ जानकारी हुई आज के समाज की, इन्सान के भीतर बैठे भूत को देखने का भी मौका मिला और मालूम हुआ इन्सान, इन्सान का शोषण कैसे करता है, कितना गिर जाता है अपने आप से, इन्सानियत से, दूसरे की लाचारी का किस तरह भोग करता है, मज़बूरी का फ़ायदा आख़िर कहाँ तक उठाया जा सकता है, बहुत कुछ मालूम हुआ मुझे नौकरी के दौरान।
पहली बार एहसास हुआ नारी पर दुर्बल, अबला, कमज़ोर, लाचार, बदचलन, वेश्या, रन्ड़ी, आदि शब्द किस प्रकार बड़े ही साधारण ढंग थोप देता है मेरा समाज, नारी की मज़बूरी पर, यह असामाजिक शब्द मुझे भी सहने और सुनने पड़े लेकिन समाज इन्हें सामाजिक शब्द कहता है।
आख़िर नौकरी छोड़ देनी पड़ी और फिर वहीं बेरोज़गारी। नौकरी के दौरान दो चार मित्र सखा भी बने। अब उनके लिए मैं सार्वजनिक सम्पति समझी जाने लगी। जिसका मन करें और जी में आये वह ही मुझे उपयोग (नौकरी दिलाने के नाम पर) करने की कोशिश करने लगा। मुझे वह भी भगवान का दूत नज़र आता था क्योंकि वह मुझे काम और काम के बदले दाम दिलाने का सहारा देता था कि आज कम्पनी मैंनेजर, कभी डायरेक्टर से, कभी मालिक से.... बात करके आया हूँ। हो सके तो कॉफी होम आ जाना, वहाँ बात करवा दूंगा आमने-सामने।
आना-जाना तो किसी को भी नहीं होता था बस वह मुझे उपयोग करने लिए, मोहरा बनाने के लिए या एक लड़की को एक औरत तक का सफ़र दिखाने के लिए बुलाया जाता था सब सहना पड़ता है भूख के आगे। हाथ, मन और तन सब फैलाना पड़ता है, शायद ये ही दस्तूर है जीवन के जीने का, ज़िन्दगी से लड़ने का...।
मेरे मित्रों में रमेश भी था जिसने मुझे वाकई समझने की कोशिश की और उसने काफ़ी हद तक उबारा भी उस दयनीय स्थिति से, नौकरी भी दिलायी, उसने मुझे अपने घर में रहने के लिए बुला लिया, जहाँ वह अकेला रहता था। परिवार कहीं दूसरी जगह रहता था मगर दिल्ली में ही। दिन कुछ सुगन्धि व राते रंगीन लगने लगी थी। मैं भी जीवन भर की प्यासी, रेत की ढेर थी जिसने कभी पानी व स्नेह नहीं देखा था, लेकिन ज़िन्दगी अब कुछ रंगीन सी नज़र आने लगी थी, कुछ परिवर्तन लग रहा था, मैं आसा कर रही थी अपने जीवन में किसी परिर्वतन की। रमेश के आत्मीय व्यवहार ने नई आशाएँ जगाई थीं मन में, परन्तु कभी-कभी सपने सच होते ही होते बिखर जाते है।
एक दिन अचानक रमेश का एक्सीडैंड हो गया। गंभीर हालत में अस्पताल पहुँचाया गया। रमेश की हालत देखकर डॉक्टरों ने आपरेशन का फरमान सुना दिया, दस हज़ार का ख़र्च! मैं खाली हाथ, रमेश की कुल जमा पूंजी न के बराबर। कहाँ से हो पैसों का जुगाड़? परिचित चेहरों पर नज़र डाली, कभी गोपाल सम्पर्क में आया था। बीमा कम्पनी में एजेंट था, ऐसे ही किसी के घर पर मेरी भेट हुई थी उससे, बहुत शालीन व भोला लगा था मुझे।
कभी कहा था उसने मुझसे- “प्रीति जी मैं आपको कोई जॉब दिलाने का प्रयास करुँगा, फिर भी मेरी आवश्यकता पड़े तो निःसंकोच कहना, हिचकना नहीं...”
इस संकट के समय में उसकी याद आई मुझे, मैं उसके पास पहुँच गयी, भारीमन से रमेश के एक्सीडैंड का ज़िक्र करते हुए मैंने उससे कहा “मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत है। प्लीज! कैसे भी कर दो, मैं आपका एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूलूंगी...”
उसने मेरी बात गंभीरता से सुनी फिर उसके चेहरे पर एक मुस्कान उभरी, “बोला! तो ठीक है रमेश बच जायेगा, मैं दूगां आपरेशन का पूरा ख़र्च, मगर एक शर्त है।”
“क्या?”
“बस् एक रात मेरे साथ गुजार लो”
यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गयी। यह गोपाल ही है क्या?... “शराफत का चौला उतार फैंका था उसने... किसी मर्द के साथ एक रात गुजारना मेरे लिए कुछ नया नहीं था। लेकिन फिर एक नये मर्द का स्पर्ष, मेरी मानसिकता और मैं इसे कबूल नहीं कर सके!”
लेकिन, हाँ! कैलेंडर की रुकी हुई तारीख़ पर मेरी निगाहें टिकी थी।
“वह फैसले की घड़ी थी।”
“रमेश बच सकता है डॉक्टर ने कहाँ था”
“अगर आपरेशन के ख़र्च की व्यवस्था हो जाए तो रमेश बच सकता है।”
“लेकिन…, रमेश सब कुछ जानता था मेरे बारें में, मेरा अतीत उससे छिपा नहीं था। शायद उसने मेरा सान्दिय पाकर कहाँ था मुझसे ...”
“प्रीति ...वायदा करो अब से तुम्हारा शरीर, तुम्हारी आत्म, तुम अब सिर्फ़ मेरी हो...”
“मैंने अपने आँसुओं को आँखों में रोक कर, उसके गले में बाहें डाल कर कहाँ था, हाँ! मूझे कबूल है।”
“लड़कियाँ, निकाह के समय यहीं तो कहती है, जैसा सुना था मैंने?”
गोपाल कह रहा था... “बोलो प्रीति, मेरी शर्त मंजूर है तुम्हें?...”
“ज़िन्दगी में पहली बार मुझे किसी बात की चुभन महसूस हुई”
“न जाने कैसे मेरा हाथ हवा में लहराया और ज़ोरदार थप्पड़ की आवाज़ के साथ जड़ गया गोपाल के गाल पर... और मैं पलट कर भागी अस्पताल की ओर ...”
कहाँ गिरी थी बेहोश होकर, अस्पताल की सीड़ियों पर या डॉक्टर के पैरों पर या रमेश की देह पर..... पता नहीं...।
बस् कैलेंडर में एक तारीख़ अंकित हो गई थी। मैं रोक सकती थी इस तारीख़ को....वर्षों गुजरने के बाद भी फैसला नहीं कर सकी हूँ कि गोपाल की बात न मान कर रमेश को मौत में ढकेल दिया है या गोपाल के गाल पर तमाचा मार कर रमेश के विश्वास की लाज रखी है।”
फैसला नहीं कर पाने का दर्द है सीने में, साँसें रुकने लगती है जब यह तारीख़, रमेश की मौत की तारीख़ उभर आती है कैलेंडर के विशेष पन्ने पर...”